सादर अभिनन्दन...


सादर अभिनन्दन...

Tuesday, September 20, 2011

बस यूँ हीं...

1.
एक नज़र देखा और तेरे तलबगार हो गए,
     खता थी या मोहब्बत जो रुसवा सरे-बाज़ार हो गए...

2.
यूँ  खुद को दोष न दे ये इनायत है,
      कि ग़म ही सही कुछ तो दिया उसने...

Thursday, September 15, 2011

तुम्हारी आवाज़...

तुम्हारी  आवाज़ ,
खुबसूरत  कितनी , कितनी  सुरीली,  कितनी  मासूम...
जैसे  साज़  पे  चहल-कदमी की हो शब्दों ने,
खनक है एक  ऐसी,
कांच के फर्श पे मोतियों की झंकार हो जैसे...
सुन के ऐसा लगा,
जैसे  किसी ने संतूर  पे,
मोहब्बत  का  मधुर  तान  छेड़ा  हो,
या  गुलाब  की  पंखुडियो  को  छू  कर ,
वसंत  की  हवाओ  ने  गाया  हो  इश्क  का  तराना ...
कहू  क्या  और  कुछ  शब्द  नहीं  सूझते,
खफा न हो जाना कही,
मेरे अरमानो की अभिव्यक्ति से...
क्यों कि,
मेरा  तुमसे नाता है कुछ अजीब सा,
नहीं  दे सकता मै जिसे,
मोहब्बत  का  इल्जाम...
कुछ ऐसा एहसास है  ये,
चाह कर भी,
बयाँ नहीं कर सकता...
पर बेनाम भी नहीं रख सकता...


दिल  कि गहराइयो से,
जहा  धड़कने  मोहब्बत  का  तराना  गाती  है...
तुम्हारे  लिए ....
सिर्फ  तुम्हारे  लिए ....
...क्यों  कि  तुम  बहुत  ख़ास  हो  मेरे  लिए

मेरी  उस  गुमनाम  दोस्त  के  नाम 
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं,
कभी सुना ही नहीं...
पर समझता हूँ उसे,
महसूस  करता  हूँ  उसकी  धडकनों  की  आहट...

पर  काश वो भी....!


उस बेनाम खनकती आवाज़  की  मलिका  के  लिए ,
मेरा प्यार...
---मनीष.

Saturday, September 10, 2011

चरित्रहीन ...

  चरित्रहीन...
प्रेम और स्नेह का अनूठा उपहार
      पूरे रास्ते वो बस एक ही बात सोचता रहा, उसने ऐसा क्या किया जो लोगो ने ऐसी बातें की । सात दिनों तक उनके साथ गुजरा एक-एक पल उसकी आँखों के सामने आने लगा । हर एक बात की पुनरावृत्ति हुई | पिछले सात दिनों में कई बार दोनों ने  घंटो अकेले बैठ बातें की थीं, कोई नहीं होता था वहाँ | वो उनके साथ परिहास तो करता था पर उसे अपनी सीमाएं पता थी | हमेशा अपनी मर्यादा का ध्यान रखता था | इस बात का भी हमेशा ध्यान था कि उसके शब्दों की स्वतंत्रता कहा तक है | उसे याद नहीं कि उसने कोई अभद्रता की हो | क्यूँ कि वो  जानता था कि  वो उनका अपना नहीं है और उसका व्यवहार भी इस सोच से नियंत्रित था | मगर फिर भी...
     स्मृति के पन्ने उलटने-पलटने के बाद उसने मुझे कुछ बातें बतायी। ऐसा प्रतीत हुआ कि जो कुछ भी उसके बारे में कहा गया था वो इर्ष्या वश कहा गया था | उसका प्रेम ही इन सब बातों की जड़ रहा हो |
     खैर... जो भी हो अब ये बातें अनर्गल सी लगती है | इस कहानी को लिखने का कोई विशेष कारण नहीं है | बस यूँ ही कभी कभी स्मृतियाँ चुभने लगती है |
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    "नमस्ते ..."
पर कोई प्रतिक्रिया नहीं | बहुत ही आदर और सौम्यता से भरा पहला  अभिवादन था |
...सूरज अपनी लालिमा समेट कर सुनहली किरणों के साथ ओझल हो चुका था | उस कमरे में हल्का सा अंधेरा था | कुछ भी देखना जरा मुस्किल लग रहा था | ऐसे अस्पष्ट माहौल में एक अपरिचित आवाज का अभिवादन; उत्तर न मिलना स्वाभाविक था |
    "मैंने  कहा  नमस्ते  जी !"
    "मेरी  आवाज़ अच्छी नहीं लगी ?"
एक बार फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं...| ये शब्द कुछ परिहास से भरे थे | इस बार आशा थी किसी उत्तर की पर...| सोचा शयद थक जाने के कारण बात नहीं कर रही | और मैं जाने लगा, तभी एक धीमी सी  आवाज़ सुनाई पड़ी,
    "बैठिये ..."
    "शायद  आप थकीं है, मै बाद में आता हूँ आप आराम कीजिये ..."
    "नहीं... बैठिये !"
मै बैठ गया और शायद काफी देर तक बैठा रहा | कमरे में जैसे केवल ख़ामोशी और मैं  ही  बैठे हों अकेले | जिसे दूर करने के लिए मैंने कुछ औपचारिक शब्दों का सहारा लिया | थोड़ी बहुत बातें हुई और फिर मैं वहा से चला गया | किसी से भी पहली बार इससे ज्यादा बात  भी क्या की जा सकती है और वो भी तब जब वो पहले दिन अपनी ससुराल आई हो |

    दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए मैं उनके कमरे में गया | सभी थे वहा, पूरा परिवार | मुझे बैठने को कहा गया और...| कुछ देर बाद मैंने उनके साथ चुटकियाँ लेनी शुरू की | चूँकि हमारे बीच के रिश्ते में परिहास की स्वतंत्रता थी और मैंने उसका पूरा उपयोग किया | और मेरी बातों से सभी हँसने लगे | स्वभाव से मै ऐसा ही हूँ सबको हसाते रहता हूँ | कुछ देर बाद सभी अपने-अपने काम पर चले गए और मैं बागीचे में चला गया |
लगभग दोपहर के वक़्त मै लौट कर आया और देखा तो सारे बच्चे उनके कमरे में थे | परिवार में नया सदस्य आया हो तो उल्लास कुछ अधिक रहता है | मैं भी कमरे में गया | मेरी आदत है मैं किसी के कमरे में जाने से पहले दरवाजे पर दस्तक जरूर देता हूँ | मैंने ऐसा ही किया तो एक भाई ने पूछा,
    "भैया आप दरवाजा खटखटा के क्यों आते है ?"
    "अपना अंदाज़ जरा हट के है..."    मैंने जवाब दिया | और कुछ परिहास पूर्वक कहा,
    "कौन किस वक़्त कैसी अवस्था में हो कौन जाने..."
इसके बाद मेरे लिए खाना लाया गया | मैंने पहला निवाला उनकी तरफ बढाया | बड़े प्यार से और धीरे से उन्होंने ये कहा की मुझे भूख नही है | मैंने विनोद पूर्ण अंदाज़ में कहा,
    "खा लीजिये, शायद फिर इतने प्रेम से खिलाने वाला कोई न मिले...
       ...वैसे भी एक निवाला खाने से आपका पेट नहीं फट जायेगा"
खैर... निवाला तो उन्हें खाना ही पड़ा | भोजन के बाद घंटो उनसे बात होती रही | कुछ उन्होंने पूछा, कुछ मैंने | बातचीत का विषय कुछ ख़ास नहीं था, स्वाभाविक सी बाते थी जो पढाई-लिखाई और परिवार से सम्बंधित थी |
थोड़ी देर बाद गहरी सांस लेकर मैंने कहा,
    "अपनी तो किस्मत ही ख़राब है..."
    "क्यूँ? क्या हुआ?"
    "आपकी तो कोई बहन ही नहीं...| होती तो उसी से चक्कर चलाता"
और उनके गालो पर अधरों की रेखा कुछ फ़ैल सी गयी, और आँखों में जैसे हलकी सी चमक आ गयी हो | इसी तरह की ढेर सारी विनोद पूर्ण बातें हुई | कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला | शाम को हम सभी छत पर गए, गर्मी का दिन था और बिजली भी नहीं थी इसलिए छत ही एक मात्र सहारा बचा था |
     मैंने उन्हें कुछ गूढ़ रहस्यों के बारे में बताया | जो कि उस घर के बच्चो के बारे में थी | चूँकि मेरा बचपन उन्ही बच्चो के साथ बीता था इसलिए मैं बहुत कुछ जानता था | इन रहस्यमयी बातों में प्रमुख था सबका नाम और साथ ही कुछ हद तक हास्यास्पद भी | मैं उनके वास्तविक नाम की बात नहीं कर रहा, उस नाम की बात कर रहा हूँ जिसका प्रयोग प्राय: तब किया जाता है जब कोई लड़का आपकी बात नहीं सुनता | ये नाम ही कुछ ऐसे है; ये नाम हास्यास्पद इस लिए है क्योंकि ये जानवरों और पक्षियों के नाम के ऊपर रखे गए है | यहाँ पर मैं उदाहरण देना उचित नहीं समझता, पर एक बात स्पष्ट कर दूँ कि इस समूह में बैल, गधों, और कुत्तों के लिए कोई स्थान नहीं है |
     रात को लगभग १० बजे उन्होंने मेरे साथ भोजन किया और इसके बाद मैं बाहर बगीचे में सोने चला गया | अब तो जैसे यह रोज की चर्या हो गयी थी | सुबह साथ में चाय पीना, दोपहर का खाना, घंटो बैठ कर परिहास करना, और रात को साथ में भोजन करना | मुझे पता नहीं इन दो दिनों में हममे कितनी घनिष्टता हो गयी थी | मुझे देख कर उन्हें कितनी ख़ुशी होती थी ये तो मुझे नहीं पता पर मुझसे बात करके वो खूब हसती थीं | मुझे देखते ही मुस्कुरा कर मुझे बुलाती और  मेरा हाथ पकड़ मुझे बैठाती थीं | 
चौथे दिन, जब मैं भोजन करने बैठा तो उन्होंने मेरी थाली से एक निवाला उठाया और मेरी तरफ बढाया | मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और मैंने मुस्कुरा कर उनका हाथ रोक लिया  और धीरे से कहा,
    " मुझसे इतनी प्रीत न रखो, बड़ी तकलीफ होगी बिछड़ने पर... "
और इतना कह कर मैंने बड़े प्यार से वो निवाला खा लिया | तुरंत ही उनकी प्रतिक्रिया मिली,
    " बिछड़ेंगे क्यूँ ? "
    " मैं यहाँ हमेशा थोड़े ही रहूँगा... "
    " तो... मैं भी आपके साथ चलूंगी "
मैं हंसा और फिर कहा,
    " अपने पति देव से तो पूछ लीजिये; यहीं बैठें है कहीं...? "
    " ये कुछ नहीं कहेंगे... "
    " ...और जो मना कर दिया तो ? "
    " तो... हम आपके साथ भाग चलेंगे..."
    " ऐसा गजब न कीजियेगा..."
और सभी जोर से हसने लगे | मैंने फिर कहा,
    " लेकिन मैं तो अभी पढ़ता हूँ, आप मेरे साथ रहेंगी कैसे? "
    " तो क्या हुआ, आप जैसे भी रखेंगे  रह लूंगी | "
    " अब तो सच में गजब होने वाला है..."
इसी तरह देर तक विनोद पूर्ण बातें होती रही |
     ये भाग जाने वाली बात तब से सब के लिए मनोरंजन का विषय बन गयी क्यों कि मैंने सबके सामने कह दिया किया कि ये मेरे साथ भागने वाली हैं, अगर आप लोगो को अपनी प्रतिष्ठा बचानी हो तो नज़र रखियेगा अन्यथा... | और इसके बाद तो पूछिये मत...; जिसे देखो उनसे चुटकी लेने लगा,
    " सच में भागेंगी...?, भागने कि क्या जरुरत है बता दीजिये पंहुचा दिया जायेगा " | और वो झेंप कर रह जाती
      और तिरछी आँखों से मुझे देखती मानों मुझे चेतावनी दे रही हों, "मेरा भी वक़्त आएगा!"
     हर वक़्त ऐसे ही चटपटी बातें हो जाया करतीं | छोटी-छोटी बातें भी हास्य का विषय बन जातीं | बात ही बात में उनके पति भी कह देते, "अब यहाँ क्या रखा है, अब तो भागने वाली है न आप... " | और अब वो बड़ी सहजता से हामीं भर देती | सभी खुश थे, हर तरफ उल्लास था | छ: दिन कैसे बीते गए पता ही नहीं चला | परिहास, विनोद, हास्य-व्यंग इसी में दिन बीत जाता था |
     पर शायद उल्लास और आनंद की भी एक सीमा होती है और संभवत: हम उस सीमा से आगे जा चुके थे | या फिर कहीं इर्ष्या की आग जल रही थी और शायद किसी को ये खुशियाँ रास नहीं आ रही थी | खैर... जो भी हो सातवाँ दिन शुरू तो रोज ही की तरह हुआ पर...

     रोज की तरह उस दिन भी हमने चाय साथ में पी, थोड़ी बहुत बातें भी हुईं और फिर मै बगीचे में चला गया | दोपहर में लौट कर आया और काफी देर के बाद उनके कमरे में गया | कमरे का माहौल कुछ अजीब सा मालूम हुआ | लगा जैसे उदासी का बोझ लिए कोई कुछ फुसफुसा रहा हो | मैंने इस बोझिल माहौल के बारे में पूछा चाहा पर रुक गया; कोई फायदा नहीं था | कमरे में एक कुर्सी थी जिसपर मै रोज बैठता था, वो आज अपनी जगह पर नहीं थी | मैंने उसे फिर उसी जगह पर रखा जहाँ  वो रोज रहती थी और वहीँ बैठ गया | और गहरी सांस लेकर पूछा,
    " क्यूँ पेट पूजा हो गयी...? "
कोई जवाब नहीं मिला | अब तक मैंने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया था पर जैसे ही उन्हें देखा मुझे उस बोझिल माहौल का राज़ समझ में आने लगा | वो चेहरा जो मुस्कान और चमक से भरा रहता था, दुःख और उदासी से बोझिल था; आँखों में ख़ुशी के बजाय नमी थी जैसे पलकें आसुओं को रोके-रोके थक गयी हो  | उन्हें देखते ही ये एहसास हो गया की कुछ तो गंभीर हुआ है | मैंने पूछा,
    " क्या हुआ? घर की याद आ रही है...? "
कोई जवाब ना मिलने पर मैंने फिर पूछा,
    " क्या बात हुई है, इतनी उदास क्यूँ हैं ? किसी ने कुछ कहा है? "
    "कुछ भी तो नहीं, उदास कहाँ हूँ; बस ऐसे ही... "
    " मुझे दिख रहा है... आपकी आँखों में... "
कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने फिर पूछा,
    " बात क्या हुई है कुछ बतायेंगीं...? "
थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा,
    " कुछ लोग कितनी आसानी से कुछ भी कह देते है...
      ... और वही बात मै आप से चाह कर भी नहीं कह सकती "
     " ऐसी क्या बात हो गयी जो आप बता नहीं सकती ?"
     "...ठीक है अगर आप नहीं बताना चाहती है तो ना सही, मैं किसी और से पूछ लेता हूँ "
     इसके बाद मै बागीचे में चला गया और घर एक लडके से सारी बातें विस्तार से बताने को कहा | और उसने सब कुछ कह दिया | उसकी बातें सुनते ही लगा जैसे समय रुक गया हो | जैसे बिच्छुओं के डंक में सनी तीर किसी ने मेरे सीने में उतार दी हो | कुछ पल तक मुझे कोई अनुभूति ही नहीं हुई | मुझे बहुत क्रोध आया पर जल्द ही मैंने स्वयं पर नियंत्रण कर लिया | सारी बातें उनके और मेरे सन्दर्भ में थीं | सच में कुछ ऐसी बाते थी जिन्हें कहने से पहले कोई भी कई बार सोचेगा और शायद फिर भी कह ना पाए | मैं खुद भी उन बातो का जिक्र नहीं कर सकता | ऐसा नहीं है कि वो बातें बहुत ही घृणित या निकृष्ट कोटि के अपशब्द जैसी है जिन्हें लिखा नहीं जा सकता, बस शब्दों की मर्यादा मुझे लिखने की अनुमति नहीं दे रही है |
     दोपहर से शाम हो गयी पर आज मै घर नहीं गया बगीचे में ही बैठा रहा | मैं थोडा दुखी था और क्रोधित भी | दुःख इस बात से था की मेरे कारण किसी और को दुख हुआ और वो सुनना पड़ा जो कोई भी नहीं सुनना चाहेगा, और क्रोध उस पर आ रहा था जिसने रिश्तों की मर्यादा को कलंकित करने वाला अनर्गल आक्षेप लगाया था | पर वो बातें परिवार के किस सदस्य ने कहीं थी ये आज तक मै नहीं जान पाया | खैर... मैंने किसी को भी अपनी मन:स्थिति का भान नहीं होने दिया | मेरे व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ |
देर शाम मै घर लौटा और लौटते ही शिकायत भरे शब्द सुनने को मिले,
    " आज हमसे बात करने की फुर्सत नहीं मिली? मैं सारा दिन आपकी राह देखती रह गयी | "
मैंने मुस्कुराते हुए कहा,
    " क्यूँ मुझसे इतना स्नेह रखती है कि खुशियों को भी बर्दास्त नहीं होता ?"
मेरा जवाब सुन कर बिना कुछ कहे वो अपने कमरे में चली गयीं | ये शब्द अनायास ही निकल गए, बाद में मुझे इनकी गंभीरता का एहसास हुआ | कुछ देर बाद मैं उनके पास गया और  उसी कुर्सी पर बैठा और फिर उनका हाथ अपने हाथों में ले बड़े प्यार से कहा,
    " इतनी छोटी सी बात बताने में आपको इतना संकोच हो रहा था... | मुझे यहाँ उम्र भर नहीं रहना है |
      कोई मेरे बारे में क्या कहता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता | और न ही इससे हमारे स्नेही रिश्ते
      पर कोई असर पड़ सकता है | ...हाँ इस बात से फर्क पड़ेगा कि आप मेरे बारे में क्या सोचती हैं |"
वो निरुत्तर हो चुपचाप बैठी रहीं |
कुछ देर बाद हम एक साथ खाना खाने बैठे | मैंने अपनी थाली से एक निवाला उठाया और उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा,
    " आखिरी बार मेरे हाथो से खा लीजिये, शायद जिंदगी फिर ये मौका दे न दे...| "
    " आज आप ऐसा क्यूँ कह रहे हैं? "
और फिर मेरे हाथो से खाने के बाद उन्होंने अपनी थाली से स्नेह भरा एक निवाला मुझे भी खिलाया |
     अगली सुबह रोज जैसी ही थी पर विडम्बना यह थी कि आज मुझे घर जाना था | आज भी रोज कि तरह ढेर सारा परिहास हुआ | और इसी तरह उल्लास पूर्वक आज का दिन भी बीत गया | सूरज मध्य आकाश को पार कर पश्चिमी क्षितिज की ओर लुढ़क चुका था | मैं घर जाने के लिए तैयार हुआ | पर सबको लगा की मैं कल की बात से दुखी हो कर जा रहा हूँ | और इसीलिए सबने मुझे रोकना चाहा | मैंने कहा,
    " छुट्टियाँ ख़त्म हो रहीं है और कॉलेज शुरू होने वाला है इसी लिए अब मुझे जाना होगा;
      ...अभी और भी बहुत से काम बाकी है | "
और सबका अभिवादन करने के बाद अंत में मैं उनके पास गया | अभी तक उनको यह विदित नहीं था कि मैं जा रहा हूँ | मुझे तैयार देख उन्होंने आश्चर्य से पूछा,
    " आप... जा रहे है क्या?
       ...इतनी जल्दी क्यूँ? कहीं कल की बात... "
मैंने मुस्कुरा कर उनके हाथो को अपने हाथो में लेते हुए कहा,
    "जाना है..., छुट्टियाँ ख़त्म होने को है |
      ...और जल्दी कहाँ है, पिछले सात दिनों से यहीं तो हूँ |
      रहा सवाल कल की बात का, वो मैं कल ही भूल गया और अब आप भी भूल जाइये | "
     " फिर भी, कुछ दिन और रुक जाते तो..."
मैंने बात को बीच में काटते हुए कहा,
    " आपके आँचल में ममता और स्नेह तो बहुत है पर इसकी छांव इतनी घनी नहीं है की
       इसके नीचे बैठ कर जिंदगी की धूप से बचा जा सके... "
और कुछ संजीदा हो कर कहा,
    " अगर भूल से भी मैंने कुछ कहा हो या कुछ ऐसा किया हो जिससे आपका सम्मान आहत
      हुआ हो तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा..."
    " फिर वही बात..."
और एक बार फिर उनकी पलके भींग गयीं | शायद भावुक लोगो की यह सबसे बड़ी कमजोरी होती है | इसके बाद मैं उनके कमरे से निकला तो उनकी आवाज आयी,
    " फिर कब आयेंगे...? "
    " जब भी आप याद करे... " मुस्कुरा कर मैंने जवाब दिया |
और फिर मुड कर धीरे से कहा,
    " शायद कभी नहीं... "



---मनीष

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Saturday, September 03, 2011

तुम्हारा स्नेह भाई...

"तुम्हारा स्नेह भाई...
एक ऊर्जा है जीवन की,
शक्ति है नव-सृजन की,
देती ठंडा सकूँ मुझे,
प्रेरणा है जीवन की,
यद्यपि की तुम पास नहीं,
फिर भी आशीष बन कर,
संघर्ष का साथी बनता,
तुम्हारा स्नेह भाई..."

----मनीष