सादर अभिनन्दन...


सादर अभिनन्दन...

एक छोटी सी कहानी (भाग-1)

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थिरकन 

एक नयी शुरुआत  
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    बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, ख़ास कर पारिवारिक प्रतिष्ठा के लिए। इसके बाद हम अचानक ही बड़े हो जाते हैं। मन की छोटी सी जमीन पर न जाने कितने सपने बोये जाते हैं, और उन सपनों को पूरा करने की जिम्मेदारी हमें सौंप दी जाती है। एक वाक्य में कहूँ तो, "हम जिम्मेदार बन जाते है", सिर्फ एक ही दिन में ।  एक बात है जो आप सभी ने अनगिनत बार सुनी होगी, "बेटा आज मेहनत करोगे तो आगे बहुत आराम होगा।"  जैसे इसे कहने-सुनने की आदत सी पड़ गयी हो।  पर जब हम "बड़े" हो जाते हैं तो इस बात पर हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। एक सच्चाई नजर आती है। पर सच  कहूँ तो यह एक भ्रम है, जीवन में आराम जैसी कोई चीज नहीं होती। या यह कहें कि आराम शब्द की कोई परिभाषा ही नहीं होती।
   "बड़े" हो जाने  के  बाद मेरा पहला काम था अपने लक्ष्य की ओर  बढ़ने का प्रयास करना। क्योंकि लक्ष्य तो 10वीं के बाद पिताजी ने ही निर्धारित कर दिया था। अनवरत प्रयास और अनेकों रातें आँखों ही में काटने के बाद, एक दिन परिवार में उल्लास छाया। मैंने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पास कर ली थी।  सब बहुत खुश थे।  मैं भी बहुत खुश था, पर थका हुआ था। टूटन क्या होती है उसका एहसास हो रहा था। मैं सोना चाहता था पर आँखों में नींद नहीं थी, बस थकन थी, बहुत ही ज्यादा। पलकें जितनी बार झपक रहीं थीं मानो कह रहीं हो कि इसी कमीने की वजह से ही 'न सोने' की आदत हो गयी है।

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कालेज के पहले दिन का एहसास क्या बताऊ। डर, संकोच, प्रसन्नता, उल्लास, कम्पन, जाने कितनी ही मानसिक और शारीरिक गतिविधियाँ एक साथ आंदोलित हो रही थीं। और उन सबको सम्हाले हुए मैं चुप-चाप, टुकुर-टुकुर देख रहा था। पहले घंटे के बाद थोड़ा सामान्य हुआ और कुछ दोस्त भी बन गए। एक के बाद दूसरा, तीसरा और यूँ हीं आखिरी घंटा भी गुजर गया। हॉस्टल पहुचते-पहुचते घड़ी ने शाम के 5.30 बजा दिए।
  "चल किनारे पर चलते हैं।", स्वप्निल ने कहा। मैं और स्वप्निल अच्छे दोस्त थे, और रूम-पार्टनर भी।
  "नहीं यार, थका हूँ , मन नहीं है।"
  "तू भी न..., अबे चल ना, वहां सारी थकान मिट जाएगी।"
  "ऐसा क्या है वहां?"
  "तू चल तो सही।"
मन तो नहीं था पर उसकी ज़िद के आगे झुकना पड़ा। लगभग 3 कि.मी. दूर स्थित सागर के किनारे पर पहुँच कर बड़ा सुकून मिला। उसने सच कहा था, पल भर में ही सारी थकन गायब हो गयी। शाम की सुनहली किरणें  मानो रेत पर सोना बिखेर रही हों। मंद-मंद चलती ठंडी बयार की छुअन कितना सुकून दे रही थी। सागर तट से दिखता एक केसरिया गोला...
"क्या नज़ारा है...", मेरे मुह से अनायास ही निकल पड़ा।
"सच में क्या नजारा है...", ये सहमति के शब्द स्वप्निल के थे। पर जिस तरह आह भरकर उसने कहा, मेरी आँखे बरबस ही उसके चेहरे के भाव पढ़ने लगीं ।
  "तू  नहीं सुधरने वाला...", मैंने धीरे से कहा।
  "बिगड़ा ही कहाँ हूँ।"
  "क्यूँ, अभी कुछ और बाकी  है?"
  "च्च"
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  "साम्भर-डोसा..., ये भी कोई खाना हुआ यार। पेट ही नही भरा ", मैंने रात के खाने के बाद जैसे शिकायत की।
  "बेटा! ये चेन्नई है, और यहाँ यही खाने को मिलेगा। अगर तेरे पेट में नांद लगा है तो तू घर लौट जा, या ऐसा कर, बापू से बोल कि खाना पार्सल कर दिया करें ।", स्वप्निल ने सहजता से कहा और अचानक उसे कुछ याद आया,
   " अबे, तूने उस गुलाबी टॉप वाली को देखा? क्या लग रही थी यार..."
  "तू बस इसी में रह। अबे हम यहाँ डॉक्टर बनाने आये हैं, ये देखने नहीं की कौन क्या लग रहा है।"
  "आज पहला दिन ही कितना अच्छा गुजरा। पता है ये शहर मुझे भा गया है।"
  "अच्छा बेटा...! कोई  नहीं; बीवी-बच्चे ढूंढ़ ले और यही बस जा। चल अब सीनियर-टाइम हो गया है।", मैंने पीछे से उसकी गर्दन पकड़ी और धकेलते हुए कहा।

:::::::::::::::::::::::: 3 :::::::::::::::::::::

   "अबे उठ, 7 बज गए हैं। डिपार्टमेंट नहीं चलना क्या?", मैंने स्वप्निल को झकझोरते हुए कहा।
   "अभी बस 7 ही बजे है, अबे अभी तो घंटे भर से ज्यादा रात बाकी  है... सोने दे।"
दौड़ते भागते हम कॉलेज पहुचे। सब कुछ कल जैसा ही था। हम दोनों तीसरी बेंच पर जा बैठे। हमारी दाहिनी तरफ की बेंच पर तीन लड़कियां आ कर बैठी। और स्वप्निल को उसका काम मिल गया ।
   "अबे, सामने देख, ध्यान कहाँ है तेरा?", मैंने फुसफुसाते हुए कहा।
   " अबे, तू समझ ले, मुझे बाद में समझा देना। डिस्टर्व न कर।"
   "अबे, पढ़ने आया है या लड़की ताड़ने...?"
   "करना क्या है, इंजेक्शन लगाना ही तो सीखना है, और मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है।"
   "स्वप्निल..." ये प्रोफ़ेसर की आवाज थी, "क्या बात हो रही है?"
   "कुछ नहीं सर, पेन भूल गया हूँ।", स्वप्निल बिना कुछ सोचे बोल पड़ा।
    " तुम्हारे शर्ट की पॉकेट में तो है।", उन्होंने स्वप्निल की शर्ट की जेब की तरफ इशारा किया।
    " सर, रिफिल ख़तम हो गयी।"
   "कमाल है, मैंने तो अभी कुछ लिखाया भी नहीं।" , प्रोफ़ेसर जी ने व्यंगात्मक टिप्पड़ी की।
   "आज तो तेरी लगने वाली थी बेटा।", मैं फुसफुसाया।
   "कमीने, सब तेरी वजह से हुआ।", स्वप्निल ने गुस्से से कहा।
   "मैंने क्या किया ?"
   "क्लास ख़तम होने दे फिर बताता हूँ ।"

पता ही नहीं चला कब चार घंटे बीत गए। लंच में कॉफ़ी पीने हम दोनों कैंटीन गए।
   "एक बात समझ आ गयी है, लाइफ ऐसे ही कटने वाली है। कॉलेज जाओ- पढ़ाई करो, लौट कर  हॉस्टल जाओ- पढ़ाई करो,  खाओ उसके बाद फिर पढ़ाई करो। यार, बूढ़े हो जायेंगे पढ़ते पढ़ते।", स्वप्निल ने शिकायत भरे लहजे में कहा।
   "एक बात बता, तू चाहता क्या है?", मैंने पूछा।
   " ज्यादा कुछ नहीं यार, बस लाइफ बोरिंग न हो।", स्वप्निल कॉफ़ी  पीते  हुए कहा।
   "सही कहा दोस्त!", विनीत और सौरभ ने भी हामी भरी।
   "ह्म्म्", मुझे भी सहमती देनी पड़ी।
हम क्लास में वापस आ गए, और जैसा होना था क्लास चली, दिन गुजरा और हम वापस हॉस्टल । आज की शाम भी बंद कमरे में ही गुजरी।


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अब तो यह रोज का बंधा-बंधाया काम हो गया था।  महीनों गुजर गए और पता भी नहीं चला। कालेज जाना , लेक्चर सुनना, लंच करना, वापस आना बस यही जिंदगी हो गयी थी। इसी में हम सबने ख़ुशी ढूंढ़  ली थी। ऐसे ही पढ़ते-घूमते मस्ती में दिन बीत रहे थे कि एक दिन खबर उड़ी। कॉलेज में कुछ सांस्कृतिक समारोह होने वाले थे जिसमे कई कॉलेज भाग ले रहे थे । और जैसी उम्मीद थी, इस खबर को सुनते ही स्वप्निल उछल पड़ा।
    "क्या बात है..., मजा आएगा..." -- स्वप्निल।
   "अबे, मजा तो अब भी आता है।" -- विनीत।
   "क्यूँ तू भी भाग लेगा क्या?" --- मैं।
   "अरे भाग नही लेगा, लड़की ताड़ेगा। इसका पसंदीदा काम जो है।" --- विनीत।
   "ओह..., तो इसलिए उछल रहा है।"--- मैं ।
    "कमीनो, सीधे-साधे बच्चे को बदनाम कर रहे हो। " --- स्वप्निल।
    "बेटा, भ्रम में है तू।" --- मैं।
   "बेटा विनीत, देख तेरा असाइनमेंट आ रहा है।"--- स्वप्निल ने विनीत से कहा ।
   "हेय दोस्तों, तुममें से कौन-कौन भाग लेने वाला है?"--- नंदिता।
   "मुझे डांस पार्टनर चाहिए।" --- स्वप्निल।
   " तुम डांस करोगे?" --- नंदिता।
   "कमर अच्छी  हिला लेता है।" --- विनीत।
   "अबे बंदरबाजी बोल...।" --- मैं।
   "सही है, अच्छा मनोरंजन होगा।" ---विनीत।
   "हँसो लो कमीनो।"--- स्वप्निल।
   "कौन-कौन से कॉलेज आ रहे हैं?" --- मैं।
   "पता नहीं यार ..." --- नंदिता।
   "कुछ ही दिनों में टेस्ट होने वाले हैं, ये कार्यक्रम कब होंगे?" --- मैं।
   "सप्ताह भर का समय मिल जायेगा टेस्ट के लिए।"--- नंदिता यह कहते हुए चली गयी।
   "मैं भी चलता हूँ।" विनीत भी नंदिता के साथ चला गया।
   "असाइंमेंट ...?" मैंने स्वप्निल से सवाल किया।
   "समझा कर यार...।"

::::::::::::::: 5 ::::::::::::::::::::


कार्यक्रम शुरू हो गए थे। स्वप्निल बाकी दोस्तों के साथ जाया करता था। पर मैं नहीं जाता था।  न जाने क्यों मन नहीं था जाने का। कभी-कभी कैम्पस तक टहलने जाया करता था। काफी चहल-पहल थी। ऐसा लगता था मानो मेले में आये  हों। 
   पर आज सुबह से ही मन बहुत प्रफुल्लित था। आज सबकी चुटकी ले रहा था। 11 बजे  के आस-पास मैंने स्वप्निल से ऑडिटोरियम चलने को कहा। पर उसने यह कह कर मना कर दिया कि आज बंदरबाजी होने वाली है।
    "बन्दरबाजी...?"
    "हाँ यार! आज बोरिंग प्रोग्राम होने वाले है। कुछ प्ले होंगे और क्लासिकल डांस होगा।"
    "क्लासिकल डांस...! यानि शास्त्रीय नृत्य। वाह, तब तो मजा आएगा। चल ..."
    "तुझे जाना हो तो जा, मैं नहीं जाने वाला।"
    "अबे जायेगा कैसे नहीं।"
 उसे मेरे साथ चलना ही पड़ा। आज जाने क्यूँ मन में गुदगुदी सी हो रही थी। आज सभी मेरे इस बदलाव से विस्मित थे।
कैम्पस जाते वक़्त रास्ते में मैंने बहुत उत्पात किया। शायद ही कोई ऐसा बचा हो जिसे देख कर मैंने फब्बियाँ न कसी हों।
    "बेटा स्वप्निल, वो देख क्या आइटम्स हैं।", मैंने स्वप्निल को कन्धा मारते हुए कहा।
    "वाह, पसंद अच्छी है। बड़ा हो रहा है तू धीरे-धीरे।"
    "बड़ा तो मैं बचपन में हो गया था। ये तो तुम बच्चों के सामने चुप रहना पड़ता है।"
    "ओहो..., क्या बात है, अंकल।"
    "अच्छा ये बता कन्याओं पर वाग्वाण क्यों छोड़े जाते है?", मैंने स्वप्निल से पूछा।
    "क्या ...?"
    "अरे कमेंट क्यूँ करता है तू उनपर?"
    "मजा आता है।"
    "किसे?"
    "किसे का क्या मतलब? सबको आता है।"
    "एक मौलिक कारण  बताता हूँ तुझे। कभी कोई बताएगा नहीं।"
    "बोलो गुरुदेव ..."
    "वाग्वाणों से कन्याओं में आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। वो ये सोचती है, "अब मैं बड़ी हो गयी हूँ। लड़के मुझे देख कर कमेन्ट कर रहे हैं।""
    "जय हो प्रभु, चरण कहाँ है आपके?"
    " इधर है, नीचे ..."
ऐसे ही मजे लेते हुए हम ऑडिटोरियम पहुचे। कार्यक्रम चल रहे थे। हम दोनों स्टेज से थोड़ी दूरी पर जा बैठे। प्रतिभागियों को देख मैं अच्छे-अच्छे वाग्वाण चला रहा था। तभी एक ने आपत्ति जताई।
    "ओये केकड़ी, चुपचाप प्रोग्राम देख।", मैंने तपाक से उसका जवाब दिया। इसके बाद उसने कुछ भी नहीं कहा।
स्वप्निल मुझे आश्चर्य से देखने लगा। ये बात मुझे भी अजीब लगी। फिर भी मैं चालू ही रहा।
तभी बताया गया कि अगला कार्यक्रम शास्त्रीय नृत्य का है।
    "ये लो, बन्दरबाजी शुरू होने वाली है।", स्वप्निल ने मुझे संबोधित किया।
    "अरे अच्छा लगता है मुझे।"
    "हाँ, तुझे तो बंदरिया ही अच्छी लगेंगी।"
    "हा हा ..."
स्टेज से पर्दा हटा। गहरे गुलाबी रंग का एक पारंपरिक परिधान पहने एक लड़की दिखी, हाथ जोड़े हुए प्रणाम की मुद्रा में। फिर सर झुका कर अभिवादन किया। तबले ने ताल दी और उसके पैरो ने थिरक कर साथ दिया। और इस थिरकन के साथ डांस शुरू हो गया। उसे देख मैं अपने पुराने रूप में आ गया, मेरे मन की सारी चंचलता गायब हो गयी। होठों पर मुस्कान और चहरे और आँखों में अनगिनत भाव लिए गजब का नाच रही थी। संगीत और उसके पैरों का तालमेल देखते ही बन रहा था। संगीत की हर धमक के साथ अपने पैरों को फर्श पर कारीगरी से रख रही थी और साथ ही हाथों और चेहरे से अनेको भाव बना रही थी। एक खुबसूरत कला दिख रही थी। क्या नृत्य था। उसका हाथों से मंडल बनाना और उसके चहरे की भाव-भंगिमा, क्या बताऊ कितना आकर्षक था। शरीर का पूरा भार पैरों के पंजों पर लेकर, घुटनों से पैरों को मोड़ कर  और फिर हाथों को लहराते हुए, बारी-बारी से सीधा करना और फिर मोड़ कर वक्ष तक ले आना, क्या संतुलन और स्फूर्ति थी उसमे। फिर अचानक उठी और और दक्षिणावर्त घुमने लगी, अनेकों चक्कर...; इसके बाद रुकी, और फिर तुरंत ही अपनी लय में वापस आ गयी। गजब का संतुलन देखने को मिला। गजब की थिरकन थी। उसकी आँखों और हाथ की अंगुलियों की क्या खूब भूमिका दिखाई दे रही थी। अपनी  उंगलियों का इस्तेमाल वो कितनी खूबसूरती से कर रही थी। अगल अलग भाव दिख रहे थे, अलग अलग बातों  को उंगलियों और आँखों के सामंजस्य से कह रही थी। वह अपने में आनंदित थी। एक  था उल्लास था उसके चेहरे पर, एक चमक थी। वह केवल नाच ही नहीं रही थी बल्कि अपनी कला के माध्यम से बात भी कर रही थी। कितना सम्मोहन था उसके इस नृत्य में। मुझे माहौल का कुछ भान ही न रहा। ऐसा लग रहा था मानों सिर्फ वही है। पार्श्व में बजता हुआ संगीत जैसे मद्धिम सा पड़ने लगा। उसकी कला में इतना सम्मोहन था कि मैं एक टक उसे देखे ही जा रहा था। क्या जादूगरी थी।
मैं नहीं जानता की उसका नृत्य किस शैली में आता था, फिर भी अनायास ही मेरे मुह से निकल पड़ा,
    "गजब की कला है यार। कितना आकर्षण, कितना सम्मोहन है इसमें।"
मेरी बात सुन स्वपनिल मेरी तरफ आश्चर्य से देखने लगा। फिर उसने मुझे झंकझोर कर कहा,
    "भाई, कहा खो गए?"
    "अरे..., कहीं नहीं यार।", मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
    "सही है ...", स्वप्निल ने चुटकी ली।


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(कहानी जारी है: भाग 2)

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