सादर अभिनन्दन...


सादर अभिनन्दन...

चरित्रहीन...

चरित्रहीन...
प्रेम और स्नेह का अनूठा उपहार 


    पूरे रास्ते वो बस एक ही बात सोचता रहा, उसने ऐसा क्या किया जो लोगो ने ऐसी बातें की । सात दिनों तक उनके साथ गुजरा एक-एक पल उसकी आँखों के सामने आने लगा । हर एक बात की पुनरावृत्ति हुई | पिछले सात दिनों में कई बार दोनों ने  घंटो अकेले बैठ बातें की थीं, कोई नहीं होता था वहाँ | वो उनके साथ परिहास तो करता था पर उसे अपनी सीमाएं पता थी | हमेशा अपनी मर्यादा का ध्यान रखता था | इस बात का भी हमेशा ध्यान था कि उसके शब्दों की स्वतंत्रता कहा तक है | उसे याद नहीं कि उसने कोई अभद्रता की हो | क्यूँ कि वो  जानता था कि  वो उनका अपना नहीं है और उसका व्यवहार भी इस सोच से नियंत्रित था | मगर फिर भी...
     स्मृति के पन्ने उलटने-पलटने के बाद उसने मुझे कुछ बातें बतायी। ऐसा प्रतीत हुआ कि जो कुछ भी उसके बारे में कहा गया था वो इर्ष्या वश कहा गया था | उसका प्रेम ही इन सब बातों की जड़ रहा हो |
     खैर... जो भी हो अब ये बातें अनर्गल सी लगती है | इस कहानी को लिखने का कोई विशेष कारण नहीं है | बस यूँ ही कभी कभी स्मृतियाँ चुभने लगती है। 

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